Thursday, December 20, 2012

कोई है यहाँ कहाँ(koi hai yahan kahan)

छोटी सी ख्वाहिशें , ले चली दूर मुझे,
आँखों में सपने, कुछ है सजे,
सपने बाट सकूं, कोई है यहाँ कहाँ!

मेरी मंजिलें, अभी दूर बहुत,
सामने, घनी रात बहुत,
सोचता हूँ, कोई पास हो मेरे.
जिसे अपना हाथ बढ़ा सकूं,
हाथ थाम सके, कोई है यहाँ कहाँ!


वक़्त की गर्मी से निकले, मेरे कई अरमान,
अरमानो को समेट, आग में जला सकूं,
आग जैसे चीज़, कोई है यहाँ कहाँ!


                                                   -ड्यूक (विनीत आर्य)

Sunday, December 16, 2012

लिखता जब मैं, तेरी गज़ल को (Likhta Jab Main, Teri Ghazal Ko)

लिखता जब मैं, तेरी गज़ल को,
मुझे याद तेरा मुस्कुराना आता है|
जब देख मुझे, तू कुछ ऐसे मुस्कुराती है,
जैसे कोई राज़ पढ़ लिया हो, मेरे चहरे से|
तेरी आँखों की सरगोशियाँ,
कोई शिकायत कर रही हो मुझसे |
जैसे कोई तीर चलाया हो तुमने अँधेरे में,
और आ लगा हो ठीक निशाने पर|

लिखता जब मैं, तेरी गज़ल को,
तो याद तेरी जुल्फें आती है|
जब तेरी जुल्फों से, एक लट नीचे उतर आती है,
बलखाती शर्माती, चुपके से तेरे गालों को चूम लेती है|
जैसे इसे तेरी इजाज़त मिली हो,
तुझ से कोई शरारत करने की|

लिखता जब मैं, तेरी गज़ल को,
तो याद तेरी कई बातें आ जाती है|
एक बेखुदी का आलम बना जाती है|
जैसे मुझे पागल कर गई है तू,
और मेरा पागलपन ढूँढ रहा है तुझे|

                                                   -ड्यूक (विनीत आर्य)

Monday, December 3, 2012

अपनी सी ये जिंदगी ( Apni Si Ye Zindgi)


टूटी - टूटी, है मेरी ये जिंदगी,
देखोगे जब तुम इसे करीब से,
पाओगे तुम, अपनी सी ये जिंदगी| -2

ख्वाबो में रहता हूँ,
ख्वाब बुनता हूँ,
अक्सर, ये ख्वाब, टूट जाते है|
दर्द भी होता है,
दिल भी रोता है,
कुछ खोया सा, लगता है, इस जिंदगी को|
देखोगे जब तुम इसे करीब से,
पाओगे तुम, अपनी सी ये जिंदगी.

घर से, निकलता हूँ,
कुछ दूर चलता हूँ,
अक्सर, ठोकर लग, गिरता हूँ,
मुस्कुरा कर रोता भी हूँ,
पलकों में पानी ला, हँसता भी हूँ,
आखिर में, जी भर, कोसता हूँ, इस जिंदगी को|
देखोगे जब तुम इसे करीब से,
पाओगे तुम, अपनी सी ये जिंदगी|



टूटी - टूटी, है मेरी ये जिंदगी,
देखोगे जब तुम इसे करीब से,
पाओगे तुम, अपनी सी ये जिंदगी| 

                                                   -ड्यूक (विनीत आर्य)

Wednesday, November 28, 2012

यादों का मंजर (Yaadon Ka Manzar)

आज फिर एक गज़ल लिखता हूँ,
कुछ भूली कुछ बिछड़ी दास्ताँ लिखता हूँ,
शायद, कुछ पल के लिए वो मंजर लौट आये,
जिसे मैं, ता उम्र याद करता हूँ|

फ़ुरसत मिले तो, वो पुरानी किताबें खोलना,
जिन्हें मैं ले तेरे घर के आगे भीगा हूँ,
शायद, उसमें कुछ पैसे आज भी रखे हो,
जिसे मैं, तुम पर खर्च करने की आज भी सोचता हूँ|

जो तु ने उस दिन रुमाल दिया था मुझको,
आज भी सोता हूँ, साथ में लेकर उसको,
शायद, उसमें तेरी कुछ महक रह गई हो,
जिसे मैं, ता उम्र पाने की चाह करता हूँ|

एक दफा साइकिल पर, घर से स्टेशन रेस लगी थी,
वो रेस तो मैं हार गया, जब तु मुझे गले लगी थी,
शायद, स्टेशन की वो भीड़ तुझे याद हो,
जहाँ मैं, तुझ को ढूँढने आज भी जाता हूँ|

एक दिन तेरी ज़िद थी, बाग़ से एक गुलाब तोड़ लाने की,
मैं एक गुलाब तोड़ लाया, तेरी एक फरमाइश पर,
शायद, वो गुलाब तुमने फेंक दिया हो,
वहां से मैं,  ता उम्र एक गुलाब चुराता लाया हूँ|

                                                     -ड्यूक (विनीत आर्य)

Friday, November 23, 2012

गुस्ताख हूँ, गुस्ताखियाँ करता हूँ (Gustakh Hoon, Gustakhiyan Karta Hoon)

पानी से भीगी उस टहनी को देखो,
उसकी आँखों से बहते आँसुओं को देखो,
हवा की टहनी से गुस्ताखी को देखो|
पीपल के पत्ते पर ठहरी उस बूँद को, पत्ते से दूर करता हूँ|
गुस्ताख हूँ, गुस्ताखियाँ करता हूँ|

उन नन्हे बच्चो को रेत के घर बनाते देखो,
उनकी झूठी- मूठी कहानी को देखो,
समुंदर पर इठला कर चलती है लहरें,
लहरों की बच्चो से गुस्ताखी को देखो|
साहिल पर पड़े पत्थर को फेंक, समुंदर को चोटिल करता हूँ|
गुस्ताख हूँ, गुस्ताखियाँ करता हूँ|

आसमान को धरती के लिए हाथ फैलाते देखो,
उसी उदासी को उस के नीले रंग में देखो,
आसमान में उड़ते परिंदे, जसे पहरा लगा रहे हो,
परिंदों की दो प्रेमियों से गुस्ताखी को देखो|
हवा में उड़ती बुलबुल को, मैं क़ैद करता हूँ|
गुस्ताख हूँ, गुस्ताखियाँ करता हूँ|

ऊपर रंग बदलते चाँद को देखो,
उसकी नारंगी सी चांदनी को देखो,
देखता है जब वो इस धरा को,
बादल की चाँद से गुस्ताखी को देखो|
बिना तेरी इजाज़त, प्यार मैं तुम से करता हूँ|
गुस्ताख हूँ, गुस्ताखियाँ करता हूँ|

                                                   -ड्यूक (विनीत आर्य)

Sunday, November 18, 2012

अजनबी (Ajnabee)

मिलते है अब्सार उस अजनबी से,
एक परिचय की ख्वाहिश से.
रहमत कर ए खुदा मुझ पर,
रोक दे इस पल को, तु किसी तरह से।
                                                      -विनीत आर्य





Meelte hai absaar us ajnabi se,
Ek paichay ki khwaahish se.
Rehmet kar aye khuda mujh par,
Rok de ish pal ko, tu kisi tarha se.

                                                    -Vineet Arya

अब्सार (absaar)  = आँखे

ढूँढ रहा अपनी तकदीर मैं (Dhoond Raha Apni Takdeer Main)

टूट कर गिरा शाख से,
न दोस्त है, न दोस्ताना|
उड़ता हूँ हवा के साथ साथ,
न घर है न ठिकाना|
खो बैठा अपनी पहेचान मैं,
ढूँढ रहा अपनी तकदीर मैं|

                                -ड्यूक (विनीत आर्य)

Friday, November 16, 2012

परिचय (Parichay)

मैं पहुँचा गया एक महफ़िल में.
महफ़िल थी दीवानों की, परवानो की|
हर कोई अपनों में खोया था,
उनको कहाँ खबर थी हम दिलवालों की|
हमने भी ये सोचा, छोडो इन बेगानों को,
हुस्न है, शमा है, मजा लो इन नज़रो का|

कुर्सी पर बैठा, एक छोर से, सबको देख रहा था,
कोला कॉफ़ी गटक रहा था|
मेहता आंटी इतरा रही थी,
साड़ी का पल्लु 
दिखा औरों को जला रही थी|

नज़र उधर से हटी तो, एक महजबीना पर आ टिकी|
लाल सूट में, रंग गेहुँआ, लगती वो परी थी,
होठों पे मुस्कान, लबों पे शबनमी,
चेहरा का नूर, आँखों की नवाज़िशे उनकी,
कर गई मजबूर एक ग़ज़ल कहने को|
कि इस कदर मत बरसो के, कहीं उसमें डूब जाऊं.
अभी तो जाम होठों से छुआ नहीं, कहीं मैं बहक जाऊं|

इसी अंजुमन में, उनसे परिचय का ख्याल मन में आया|
पर देखकर उनकी अम्मा को दिल ही दिल घबराया|
सोचा-विचारा, बहलाया-फुसलाया, फिर मुज़तर दिल को धमकाया|
इतने में नाजाने कहाँ से एक अजनबी-परिचित सामने आया|
नाम ले हमें पुकार रहा था, एक छोटी सी गुज़ारिश कर रहा था,
गुज़ारिश थी उनके अपनों से परिचय की, मैंने भी झट से हाँ कर दी,
वो ले आये उस मेज तक, जहाँ कुछ देर पहले निगाह हमारी थी|
दिल मुस्कुरा रहा था, दिल खिल-खिला रहा था,
ये मैं ज़ाहिर करता भी कैसे, उसका बाप उसी से मिलवा रहा था|

                                                                                    -ड्यूक (विनीत आर्य)

Monday, November 12, 2012

मेरे महबूब के नैनों से (Mere mehboob k naino se)

बूँद बूँद कर इश्क है गिरता,
मेरे महबूब के नैनों से|
घूंट घूंट पी, नशा है होता,
मेरे महबूब के नैनों से|

                      -ड्यूक (विनीत आर्य)

Saturday, November 10, 2012

मैं चला, यूंही चला (Main Chala younhi Chala)

मैं चला, यूंही  चला,
चुरा कर ए जिंदगी  तुझे, मैं  चला,
मुस्कुरा कर, झिलमिला कर, मैं  चला,
मंजिल को पाने, किसको अपना बनाने, मैं चला,
खुशियों के गीत होठों पर लेकर,
लहरों से लड़ते झगड़ते, मैं चला ,
इन खाली रास्तों पर,
थामने किसी का हाथ,
करने दो मुलाकातें,
मैं चला, यूंही चला|

बेखबर, बे-शहर, मैं चला,
छूने उसे, कुछ कहने उसे, मैं चला,
गुब्बार से, आंधी से होकर ,
एक नज़र भर देखने उसे, मैं चला,
उसी पर फ़िदा,
उसी पर फ़ना हो चला,
मैं चला, यूंही चला|

                         -ड्यूक (विनीत आर्य)