लिखता जब मैं, तेरी गज़ल को,
मुझे याद तेरा मुस्कुराना आता है|
जब देख मुझे, तू कुछ ऐसे मुस्कुराती है,
जैसे कोई राज़ पढ़ लिया हो, मेरे चहरे से|
तेरी आँखों की सरगोशियाँ,
कोई शिकायत कर रही हो मुझसे |
जैसे कोई तीर चलाया हो तुमने अँधेरे में,
और आ लगा हो ठीक निशाने पर|
लिखता जब मैं, तेरी गज़ल को,
तो याद तेरी जुल्फें आती है|
जब तेरी जुल्फों से, एक लट नीचे उतर आती है,
बलखाती शर्माती, चुपके से तेरे गालों को चूम लेती है|
जैसे इसे तेरी इजाज़त मिली हो,
तुझ से कोई शरारत करने की|
लिखता जब मैं, तेरी गज़ल को,
तो याद तेरी कई बातें आ जाती है|
एक बेखुदी का आलम बना जाती है|
जैसे मुझे पागल कर गई है तू,
और मेरा पागलपन ढूँढ रहा है तुझे|
-ड्यूक (विनीत आर्य)
Nice!!
ReplyDeleteab thodi depth aa rahi hai :)
zyada na soch :P
ReplyDeletemil jaayegi awesome bandi tujhe :)
Well composed,
ReplyDeletepadh kar aanand aaya...:)
sahi likh rahe ho mere dost, i like your poem and your emotion. it is my boon to you for be a love guru
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