Sunday, December 16, 2012

लिखता जब मैं, तेरी गज़ल को (Likhta Jab Main, Teri Ghazal Ko)

लिखता जब मैं, तेरी गज़ल को,
मुझे याद तेरा मुस्कुराना आता है|
जब देख मुझे, तू कुछ ऐसे मुस्कुराती है,
जैसे कोई राज़ पढ़ लिया हो, मेरे चहरे से|
तेरी आँखों की सरगोशियाँ,
कोई शिकायत कर रही हो मुझसे |
जैसे कोई तीर चलाया हो तुमने अँधेरे में,
और आ लगा हो ठीक निशाने पर|

लिखता जब मैं, तेरी गज़ल को,
तो याद तेरी जुल्फें आती है|
जब तेरी जुल्फों से, एक लट नीचे उतर आती है,
बलखाती शर्माती, चुपके से तेरे गालों को चूम लेती है|
जैसे इसे तेरी इजाज़त मिली हो,
तुझ से कोई शरारत करने की|

लिखता जब मैं, तेरी गज़ल को,
तो याद तेरी कई बातें आ जाती है|
एक बेखुदी का आलम बना जाती है|
जैसे मुझे पागल कर गई है तू,
और मेरा पागलपन ढूँढ रहा है तुझे|

                                                   -ड्यूक (विनीत आर्य)

4 comments:

  1. Nice!!
    ab thodi depth aa rahi hai :)

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  2. zyada na soch :P
    mil jaayegi awesome bandi tujhe :)

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  3. Well composed,
    padh kar aanand aaya...:)

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  4. sahi likh rahe ho mere dost, i like your poem and your emotion. it is my boon to you for be a love guru

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