Wednesday, November 28, 2012

यादों का मंजर (Yaadon Ka Manzar)

आज फिर एक गज़ल लिखता हूँ,
कुछ भूली कुछ बिछड़ी दास्ताँ लिखता हूँ,
शायद, कुछ पल के लिए वो मंजर लौट आये,
जिसे मैं, ता उम्र याद करता हूँ|

फ़ुरसत मिले तो, वो पुरानी किताबें खोलना,
जिन्हें मैं ले तेरे घर के आगे भीगा हूँ,
शायद, उसमें कुछ पैसे आज भी रखे हो,
जिसे मैं, तुम पर खर्च करने की आज भी सोचता हूँ|

जो तु ने उस दिन रुमाल दिया था मुझको,
आज भी सोता हूँ, साथ में लेकर उसको,
शायद, उसमें तेरी कुछ महक रह गई हो,
जिसे मैं, ता उम्र पाने की चाह करता हूँ|

एक दफा साइकिल पर, घर से स्टेशन रेस लगी थी,
वो रेस तो मैं हार गया, जब तु मुझे गले लगी थी,
शायद, स्टेशन की वो भीड़ तुझे याद हो,
जहाँ मैं, तुझ को ढूँढने आज भी जाता हूँ|

एक दिन तेरी ज़िद थी, बाग़ से एक गुलाब तोड़ लाने की,
मैं एक गुलाब तोड़ लाया, तेरी एक फरमाइश पर,
शायद, वो गुलाब तुमने फेंक दिया हो,
वहां से मैं,  ता उम्र एक गुलाब चुराता लाया हूँ|

                                                     -ड्यूक (विनीत आर्य)

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