मैं पहुँचा गया एक महफ़िल में.
महफ़िल थी दीवानों की, परवानो की|
हर कोई अपनों में खोया था,
उनको कहाँ खबर थी हम दिलवालों की|
हमने भी ये सोचा, छोडो इन बेगानों को,
हुस्न है, शमा है, मजा लो इन नज़रो का|
कुर्सी पर बैठा, एक छोर से, सबको देख रहा था,
कोला कॉफ़ी गटक रहा था|
मेहता आंटी इतरा रही थी,
साड़ी का पल्लु दिखा औरों को जला रही थी|
नज़र उधर से हटी तो, एक महजबीना पर आ टिकी|
लाल सूट में, रंग गेहुँआ, लगती वो परी थी,
होठों पे मुस्कान, लबों पे शबनमी,
चेहरा का नूर, आँखों की नवाज़िशे उनकी,
कर गई मजबूर एक ग़ज़ल कहने को|
कि इस कदर मत बरसो के, कहीं उसमें डूब जाऊं.
अभी तो जाम होठों से छुआ नहीं, कहीं मैं बहक जाऊं|
इसी अंजुमन में, उनसे परिचय का ख्याल मन में आया|
पर देखकर उनकी अम्मा को दिल ही दिल घबराया|
सोचा-विचारा, बहलाया-फुसलाया, फिर मुज़तर दिल को धमकाया|
इतने में नाजाने कहाँ से एक अजनबी-परिचित सामने आया|
नाम ले हमें पुकार रहा था, एक छोटी सी गुज़ारिश कर रहा था,
गुज़ारिश थी उनके अपनों से परिचय की, मैंने भी झट से हाँ कर दी,
वो ले आये उस मेज तक, जहाँ कुछ देर पहले निगाह हमारी थी|
दिल मुस्कुरा रहा था, दिल खिल-खिला रहा था,
ये मैं ज़ाहिर करता भी कैसे, उसका बाप उसी से मिलवा रहा था|
-ड्यूक (विनीत आर्य)
महफ़िल थी दीवानों की, परवानो की|
हर कोई अपनों में खोया था,
उनको कहाँ खबर थी हम दिलवालों की|
हमने भी ये सोचा, छोडो इन बेगानों को,
हुस्न है, शमा है, मजा लो इन नज़रो का|
कुर्सी पर बैठा, एक छोर से, सबको देख रहा था,
कोला कॉफ़ी गटक रहा था|
मेहता आंटी इतरा रही थी,
साड़ी का पल्लु दिखा औरों को जला रही थी|
नज़र उधर से हटी तो, एक महजबीना पर आ टिकी|
लाल सूट में, रंग गेहुँआ, लगती वो परी थी,
होठों पे मुस्कान, लबों पे शबनमी,
चेहरा का नूर, आँखों की नवाज़िशे उनकी,
कर गई मजबूर एक ग़ज़ल कहने को|
कि इस कदर मत बरसो के, कहीं उसमें डूब जाऊं.
अभी तो जाम होठों से छुआ नहीं, कहीं मैं बहक जाऊं|
इसी अंजुमन में, उनसे परिचय का ख्याल मन में आया|
पर देखकर उनकी अम्मा को दिल ही दिल घबराया|
सोचा-विचारा, बहलाया-फुसलाया, फिर मुज़तर दिल को धमकाया|
इतने में नाजाने कहाँ से एक अजनबी-परिचित सामने आया|
नाम ले हमें पुकार रहा था, एक छोटी सी गुज़ारिश कर रहा था,
गुज़ारिश थी उनके अपनों से परिचय की, मैंने भी झट से हाँ कर दी,
वो ले आये उस मेज तक, जहाँ कुछ देर पहले निगाह हमारी थी|
दिल मुस्कुरा रहा था, दिल खिल-खिला रहा था,
ये मैं ज़ाहिर करता भी कैसे, उसका बाप उसी से मिलवा रहा था|
-ड्यूक (विनीत आर्य)
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